प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान और चीन यात्रा पूर्वनिर्धारित होने के बावजूद अमेरिका की आर्थिक धौंस की कूटनीति ने इसे विशेष महत्व का बना दिया. भारत के व्यापारिक हितों पर ट्रंप सरकार के चौतरफा हमले के बाद भारत को न केवल अपने निर्यातकों के लिए नयी मंडियों की तलाश है, बल्कि चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाकर और भरोसेमंद मित्र रूस के साथ व्यापार बढ़ाकर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को रेखांकित करने की जरूरत भी है. अमेरिका-यूरोप के कुछ समीक्षकों को लगता था कि ट्रंप के आक्रामक टैरिफ और आप्रवासन नीतियों से भारत का मोहभंग हो गया है और वह चीन और रूस के खेमे में जा सकता है. यह धारणा सही नहीं है.
बेशक 25 साल की रणनीतिक और आर्थिक साझेदारी को ताक पर रखते हुए भारत पर दुनिया के सबसे ऊंचे टैरिफ लगाने, युद्ध से मुनाफा कमाने के आरोप लगाने और एच-1बी वीजा को भारतीय पेशेवरों का घोटाला बताकर उस पर अंकुश लगाने की बातें करने के कारण अमेरिका से भारत का मोहभंग हुआ है. पर भारत ने अमेरिकी या किसी और खेमे में शामिल होना कभी स्वीकार नहीं किया. इसलिए भारत ने क्वाड को सैन्य संगठन में बदलने के विचार से भी परहेज किया. प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 के शंगरी-ला डायलॉग मंच से कहा था कि भारत-प्रशांत क्षेत्र को भारत कुछ देशों की रणनीति या उनके क्लब के रूप में नहीं देखता, न किसी देश को निशाना बनाने के साधन के रूप में देखता है.
चीन को जरूर लगता था कि भारत अमेरिका के खेमे में शामिल होकर चीन को निशाना बनाने में उसका साथ दे रहा है. पर अब भारत पर ट्रंप के टैरिफ हमलों ने शायद उसे भी अहसास करा दिया है कि भारत के बारे में उसकी आशंका सही नहीं थी और अब उसने गलवान हमले से बिगड़े संबंधों को सुधारने की इच्छा के संकेत देने शुरू किये हैं. इनकी शुरुआत पिछले साल कजान की शंघाई सहयोग संगठन बैठक में मोदी और शी की मुलाकात से हुई थी. प्रधानमंत्री मोदी का शंघाई संगठन की बैठकों में जाना कोई नयी बात नहीं है. वर्ष 2017 में भारत के इस संगठन में शामिल होने के बाद से वह इसकी बैठकों में भाग लेते आये हैं और 2023 में संगठन के अध्यक्ष के रूप में इसकी वर्चुअल बैठक की मेजबानी भी कर चुके हैं. महत्व इस बात का था कि वह सात वर्ष बाद चीन की यात्रा पर गये और गलवान की झड़प के बाद जिनपिंग के साथ यह उनकी दूसरी बैठक थी. शिखर बैठक में दोनों नेताओं ने भारत-चीन के बीच पारस्परिक सम्मान और भरोसे का रिश्ता बनाने का संकल्प लिया.
प्रधानमंत्री मोदी ने रिश्तों के सुधार में प्रगति की बात करते हुए दोनों देशों के बीच उड़ानों, मानसरोवर यात्रा और सीमा व्यापार की बहाली का एलान किया. राष्ट्रपति शी ने अच्छे पड़ोसी और प्रतिद्वंद्वी की जगह सहयोगी बनने का आह्वान किया. पर दोनों के सामने अभी बड़ी चुनौतियां हैं. भारत चाहता है कि चीन आतंकवाद के नियंत्रण में भी सहयोग करे. पहलगाम में पर्यटकों पर हमला करने वाले पाक आतंकी आपसी संपर्क के लिए चीनी एपों का प्रयोग कर रहे थे. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने अपनी उपग्रह पूर्वसूचना प्रणाली से पाकिस्तान की मदद की. चीन अरुणाचल प्रदेश की सीमा के पास ब्रह्मपुत्र नदी पर सबसे बड़ा बांध भी बना रहा है, जो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सिंचाई के पानी और बाढ़ के संकट खड़े कर सकता है. आपसी संबंधों को सामान्य बनाने के लिए इस तरह के बहुत से मुद्दों पर आपसी समझ बनाने की जरूरत है.
भारत और चीन, दोनों अभी ट्रंप की धौंस भरी टैरिफ नीति का निशाना बने हुए हैं. इसलिए दोनों को आपसी व्यापार और निवेश बढ़ाने की जरूरत भी है. चीन आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी पड़ने से परेशान है, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था की गति तेज है. इसलिए संभावनाएं तो बहुत हैं, पर चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बढ़ते-बढ़ते 100 अरब डॉलर के पास जा पहुंचा है. व्यापार संतुलन के लिए जरूरी है कि चीन भारतीय सामान के लिए अपनी मंडियां खोले और भारत भी दवाएं बनाने वाले सक्रिय रसायन, मशीनी कल-पुर्जे और खिलौनों जैसे सामान अपने यहां बनाने की कोशिश करे. भारत और चीन को रूस के साथ मिलकर ट्रंप की मनमानी टैरिफ नीति के खिलाफ एकजुटता दिखाने की भी जरूरत है. ट्रंप की टैरिफ नीति ने विश्व व्यापार संगठन को अप्रासंगिक बना कर वैश्विक व्यापार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है. उसे पुनर्जीवित करने के लिए लिए ट्रंप की टैरिफ नीति के खिलाफ ब्रिक्स को एकजुट होना और आपसी मुद्राओं में व्यापार बढ़ाकर डॉलर पर निर्भरता को कम करना चाहिए. जिनपिंग ने पश्चिमी देशों के दबाव का सामना करने के लिए दक्षिणी देशों के एकजुट होने की बात भी की. पर चीन भारत के साथ इतनी बार दगा कर चुका है कि उस पर भरोसा करना मुश्किल है. शायद इसी को रेखांकित करने के लिए प्रधानमंत्री ने चीन जाने से पहले जापान की यात्रा की.
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