रामनगर: उत्तराखंड समेत पूरे शिवालिक क्षेत्र में साल वृक्षों की एक विशाल श्रृंखला फैली हुई है. यह पट्टी हिमाचल प्रदेश के कोने से लेकर करणपुर नेपाल सीमा तक फैली है. लोअर शिवालिक रेंज में प्राकृतिक रूप से मौजूद साल के घने जंगल न केवल जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह पहाड़ों के लिए एक प्राकृतिक कवच शील्ड का काम करते हैं. ब्रिटिश काल से संरक्षित ये जंगल अब धीरे-धीरे संकट की ओर बढ़ रहे हैं. बदलते पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक पुनर्जनन की चुनौतियों के चलते साल के वृक्षों का अस्तित्व खतरे में है
साल के पेड़ों की खासियत और महत्त्व: साल वृक्ष भारत के सबसे मजबूत और दीर्घजीवी वृक्षों में से एक माना जाता है. कहावत भी है कि साल 100 साल खड़ा, 100 साल पड़ा– यानी अपनी मजबूती और लंबी आयु के लिए यह विख्यात है. साल के बड़े पेड़ आम तौर पर 100 से 200 वर्ष पुराने होते हैं. यह वृक्ष मिट्टी और जल संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं. साल के जंगल जैव विविधता का प्रमुख केंद्र हैं, जहां कई वन्यजीव आश्रय पाते हैं. मध्य हिमालय 300 से 1000 मीटर ऊंचाई वाले क्षेत्र में यह वृक्ष एक प्राकृतिक कवच की तरह काम करते हैं, जो भूस्खलन, मिट्टी कटाव और जलवायु असंतुलन को रोकने में मदद करता है. आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नए साल के पेड़ उस अनुपात में नहीं उग रहे, जिस गति से पुराने पेड़ खत्म हो रहे हैं.
प्राकृतिक पुनर्जनन में कठिनाई: साल के बीज जमीन तक बहुत कम पहुंच पाते हैं, इनकी पत्तियां एक मोटी परत बनाकर बीजों को ढक देती हैं, जिससे अंकुरण रुक जाता है. यही कारण है कि प्राकृतिक रूप से उगे पौधे ही बड़े पेड़ों में बदलते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है. साल वृक्ष का प्लांटेशन बेहद धीमा होता है, नर्सरी में इसे आसानी से नहीं उगाया जा सकता, इसलिए वृहद स्तर पर वृक्षारोपण संभव नहीं हो पाता.
साल के जंगल लोअर हिमालय में एक शील्ड का काम करते हैं, देहरादून से लेकर नेपाल बॉर्डर तक फैली शिवालिक रेंज में साल के पेड़ मिट्टी और पानी को संतुलन में रखते हैं, यही कारण है कि इन इलाकों में जैव विविधता भी अधिक है. लेकिन यह पेड़ धीमी गति से बढ़ते हैं और नए पौधे पर्याप्त संख्या में नहीं हो रहे. इसके लिए वैज्ञानिक अध्ययन और वन विभाग की सतर्कता बेहद जरूरी है, वरना आने वाले समय में यह श्रृंखला खत्म हो सकती है.
जलवायु परिवर्तन का असर: बदलते मौसम और तापमान के उतार-चढ़ाव का सीधा असर साल के जंगलों पर पड़ रहा है, कई क्षेत्रों में पेड़ों की वृद्धि दर और जीवनकाल घटता जा रहा है. साल बोरर (Sal borer) नामक कीट इन पेड़ों के लिए घातक साबित हो रहा है, इस कीट से संक्रमित पेड़ धीरे-धीरे सूख जाते हैं और मर जाते हैं.
संरक्षण के प्रयास: साल वृक्षों को बचाने के लिए उत्तराखंड का वन विभाग एसोसिएटेड नेचुरल रिप्रोडक्शन (ANR) योजना पर काम कर रहा है.
इस योजना पर लाखों रुपये का बजट खर्च किया जा रहा है,इसके तहत साल के प्राकृतिक पुनर्जनन को बढ़ावा दिया जा रहा है. कैनोपी मैनेजमेंट (ऊपरी शाखाओं की छंटाई) किया जाता है ताकि नीचे के पौधों को धूप मिल सके. जहां नए पौधे स्वाभाविक रूप से उगते हैं, वहीं उन्हें सुरक्षा देकर बड़ा किया जाता है. सिलेक्शन फार्मिंग पद्धति अपनाई जाती है यानी टेढ़े-मेढ़े और कमजोर वृक्षों को काटकर नीचे की पीढ़ी के पौधों को बढ़ावा दिया जाता है.
साल के पेड़ प्राकृतिक रूप से बहुत कम उग पाते हैं, पत्तों की मोटी परत बीजों को जमीन तक पहुंचने से रोक देती है. यही वजह है कि इनका रिजनरेशन रेट बहुत धीमा है. जलवायु परिवर्तन और साल बोरर कीट की वजह से भी इनकी संख्या घट रही है, वन विभाग को चाहिए कि बीज एकत्रित कर सही मौसम में सुरक्षित अंकुरण कराया जाए, तभी इनकी संख्या बढ़ सकती है.
प्रोफेसर डॉ. एस.एस. मौर्या,रामनगर महाविद्यालय
वन विभाग के अधिकारियों ने क्या कहा: रामनगर वन प्रभाग के डीएफओ दिगंत नायक कहते हैं कि साल का प्लांटेशन आम पेड़ों की तरह नर्सरी में नहीं किया जा सकता, इसलिए हम इसे प्राकृतिक पुनर्जनन के जरिए ही सुरक्षित करते हैं. ANR पद्धति के तहत जहां प्राकृतिक पौधे उगते हैं, वहीं उन्हें संरक्षित कर बढ़ावा दिया जाता है इसके लिए कैनोपी मैनेजमेंट और डिबलिंग जैसी तकनीकें अपनाई जाती हैं.
Leave a Reply